Tuesday, 5 August 2014

ज़मीर का द्वन्द : एक धर्मयुद्ध

जो अब भी चैन से सो रहा बेकार उसकी जवानी है
जो अब भी नही खौला वो खून खून नही पानी है 

कृष्ण राम के भूमि पे रोज़ पद्मिनी चिता चढ़ रही 
हर तरफ मोहम्मद गज़नी की ही जयजयकार मची 
खोया पृथ्वीराज का सपूत है जयचंद ने है सत्ता धरी

कब तक ये जड़ता सह लेंगे निर्बलता से मुह सी लेंगे  
पूर्वजों ने जुबान पे जान दी है फिर ये सर कैसे झुका लेंगे   
गंगा को भी लाल कर देंगे जिस दिन अपने आन पे ले लेंगे 

मेदनीपति के वसुधा पे अब और न होने देंगे पाप 
फिर उतरेंगे कई पार्थ रण में धनुष उठाने को बेताब
और आएगा एक मोहन सीखने गीता का अमर पाठ 

अतंत तो सब को एक ही जगह एक ही में मिल जाना 
पर जब तक साँस है जिंदा होने का फ़र्ज़ तो है निभाना    

तपस्वी का तपोबल न परखो धरती को फिर आज़ाद करेंगे  
मद में मशग़ूल बैठा है रावण उसे रामायण याद दिला देंगे 
सहस्त्रभुजा से युद्ध करने का माद्दा हम भी दिखला देंगे 

बहुत कर लिया फरियाद अब तो ये झूठी आस खत्म करो 
योगनिद्रा में सोये है भगवान शक्ति का ही अाह्वाहन करो 
रो रहा है खून तुम्हारा कम से कम उसका तो क़र्ज़ अदा करो

नीलाम होती है पुरुषत्व अब और सहने का धीज न धरो 
शर्मसार होते आर्यव्रत की वीर संस्कृति का नाम ले लड़ो    
जीत तुम्हारी ही है बस अपने कर्म की शुरुआत तो करो

अभी विनती कर रहे हैं अहिंसा धर्म मान गांधी की तरह
अब उठेंगे कफ़न बांधे भगत सिंह और आज़ाद की तरह  


  



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