Thursday 24 October 2013

ज़िन्दगी से गुनाह

तन्हाई  में आज भी जो एक आवाज ढुंढता हुँ
तेरी तस्वीर में अपने लिए जो प्यार ढुंढता हुँ
कैसे कह दुँ ज़िन्दगी है तुम बिन अधूरी
तुम्हारी यादों में ही अपनी ज़िन्दगी ढुंढता हुँ

वो लाल लब मैं जो कभी चूम सका
उस शबनमी गालों से मैं जो खेल सका
चोरी-चोरी जो हम तुम मिले सनम
मेरे मन का हसरत निकल सका

पायलों में सजे घुंघरू जो रागिनी सुनाये
फितरे हमें संग देख जो लोगों ने सुनाये
मेरी आवाज से जो तुम आवाज मिलाओ
आज फिर दुनिया को नया एक गीत सुनाये

बागों में तुमने जो मेरे सीने पर ज़ुल्फे बिछाया
शाम ढले तेरी सूरत को जो पलकों पे बिछाया
दामन मे हमने तुम्हारे खुशियाँ सजाई
तुम्हारी राहों पे हमने फूल बिछाया

नदी किनारे हाथों में जो शाम गुज़री
बातों ही बातों में जो हमारी रात गुज़री
कही से खींच लाता वो दिन मैं वापस
तेरे कपकपाते बदन को बाहों में समेटे गुजरी

हकीकत नहीं तो तसव्वुर में जो किया है
मोहब्बत को ख्वाबों में जो किया है
ना हुआ ये प्यार पूरा तो सोच ज़रा
ये खता किसने किया है

कहती हो जो तुम मेरा इश्क़ है गुनाह
मैं ये सबकुछ जो न कर सका है गुनाह
ज़रा देख कभी सपने में मिल के हालत अपनी
कोई कर बैठा है तुम्हारे लिए ज़िन्दगी से गुनाह










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